याँ लब पे लाख लाख सुख़न इज़्तिराब में
वाँ एक ख़ामुशी तिरी सब के जवाब में
Javed Akhtar
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गुल उस निगह के ज़ख़्म-रसीदों में मिल गया
दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे
जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
दिखाने को नहीं हम मुज़्तरिब हालत ही ऐसी है
एक आँसू ने डुबोया मुझ को उन की बज़्म में
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
जिन को इस वक़्त में इस्लाम का दावा है कमाल
गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं
बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
आँखें मिरी तलवों से वो मिल जाए तो अच्छा