ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया
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दुनिया से 'ज़ौक़' रिश्ता-ए-उल्फ़त को तोड़ दे
कल गए थे तुम जिसे बीमार-ए-हिज्राँ छोड़ कर
बादाम दो जो भेजे हैं बटवे में डाल कर
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
एहसान ना-ख़ुदा का उठाए मिरी बला
आँखें मिरी तलवों से वो मिल जाए तो अच्छा
कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे
बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल
सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े