सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न वो समझे तो उस बुत से ख़ुदा समझे
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न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से
मौत ने कर दिया लाचार वगरना इंसाँ
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
जिन को इस वक़्त में इस्लाम का दावा है कमाल
हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
दुनिया से 'ज़ौक़' रिश्ता-ए-उल्फ़त को तोड़ दे
रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ