एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
'ज़ौक़' हर बुत क़ाबिल-ए-बोसा है इस बुत-ख़ाने में
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तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
ऐ शम्अ तेरी उम्र-ए-तबीई है एक रात
कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए
नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
जिन को इस वक़्त में इस्लाम का दावा है कमाल
हम हैं और शुग़्ल-ए-इश्क़-बाज़ी है
तवाज़ो का तरीक़ा साहिबो पूछो सुराही से
हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो