तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे
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बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है
जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
गया शैतान मारा एक सज्दा के न करने में
बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए
कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए