बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
ये है मसल कि फूल नहीं पंखुड़ी सही
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ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
दुनिया से 'ज़ौक़' रिश्ता-ए-उल्फ़त को तोड़ दे
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही