देख छोटों को है अल्लाह बड़ाई देता
आसमाँ आँख के तिल में है दिखाई देता
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तू भला है तो बुरा हो नहीं सकता ऐ 'ज़ौक़'
पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे
निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं
वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता
राहत के वास्ते है मुझे आरज़ू-ए-मर्ग