पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
ख़ुदा से जब नहीं चोरी तो फिर बंदे से क्या चोरी
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चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे
दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो
जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है
ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
जिन को इस वक़्त में इस्लाम का दावा है कमाल