फूल तो दो दिन बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा दिखला गए
हसरत उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए
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कल गए थे तुम जिसे बीमार-ए-हिज्राँ छोड़ कर
तू जान है हमारी और जान है तो सब कुछ
ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
उठते उठते मैं ने इस हसरत से देखा है उन्हें
रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक है 'ज़ौक़'
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है
नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ 'ज़ौक़'
ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे
वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे
कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे