ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता
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बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
सज्दे में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा
ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे
हमें नर्गिस का दस्ता ग़ैर के हाथों से क्यूँ भेजा
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर