ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
वर्ना जिगर को रोएगा तू धर के सर पे हाथ
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आँखें मिरी तलवों से वो मिल जाए तो अच्छा
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
बज़्म में ज़िक्र मिरा लब पे वो लाए तो सही
बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले