लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
झुकते हैं सख़ी वक़्त-ए-करम और ज़ियादा
Wasi Shah
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क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ़ से
मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
कब हक़-परस्त ज़ाहिद-ए-जन्नत-परस्त है
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो
बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल
कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए
जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता