लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले
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क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं
रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों साहब
बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ 'ज़ौक़'
सज्दे में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
हमें नर्गिस का दस्ता ग़ैर के हाथों से क्यूँ भेजा
हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा
क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
आते ही तू ने घर के फिर जाने की सुनाई