क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
याँ जान ही बदन में नहीं नब्ज़ क्या चले
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लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा
तू भला है तो बुरा हो नहीं सकता ऐ 'ज़ौक़'
गया शैतान मारा एक सज्दा के न करने में
तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
याँ लब पे लाख लाख सुख़न इज़्तिराब में
हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो
तवाज़ो का तरीक़ा साहिबो पूछो सुराही से