तू जान है हमारी और जान है तो सब कुछ
ईमान की कहेंगे ईमान है तो सब कुछ
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ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
कब हक़-परस्त ज़ाहिद-ए-जन्नत-परस्त है
निकालूँ किस तरह सीने से अपने तीर-ए-जानाँ को
ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
नाज़ुक-कलामियाँ मिरी तोड़ें अदू का दिल
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
ये इक़ामत हमें पैग़ाम-ए-सफ़र देती है