नाज़ुक-कलामियाँ मिरी तोड़ें अदू का दिल
मैं वो बला हूँ शीशे से पत्थर को तोड़ दूँ
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ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
दरिया-ए-अश्क चश्म से जिस आन बह गया
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता
फिर मुझे ले चला उधर देखो
गुल उस निगह के ज़ख़्म-रसीदों में मिल गया
नज़्र दें नफ़्स-कुश को दुनिया-दार
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
जिन को इस वक़्त में इस्लाम का दावा है कमाल
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला