राहत के वास्ते है मुझे आरज़ू-ए-मर्ग
ऐ 'ज़ौक़' गर जो चैन न आया क़ज़ा के बाद
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निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
जिन को इस वक़्त में इस्लाम का दावा है कमाल
ऐ शम्अ तेरी उम्र-ए-तबीई है एक रात
दुकान-ए-हुस्न में मिलती नहीं मता-ए-वफ़ा
शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
तू भला है तो बुरा हो नहीं सकता ऐ 'ज़ौक़'
ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे