वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें
Gulzar
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बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है
हुए क्यूँ उस पे आशिक़ हम अभी से
ये इक़ामत हमें पैग़ाम-ए-सफ़र देती है
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
तवाज़ो का तरीक़ा साहिबो पूछो सुराही से
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा