मज़े जो मौत के आशिक़ बयाँ कभू करते
मसीह ओ ख़िज़्र भी मरने की आरज़ू करते
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जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
मिरा घर तेरी मंज़िल गाह हो ऐसे कहाँ तालेअ'
हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है
क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
बज़्म में ज़िक्र मिरा लब पे वो लाए तो सही
ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
नज़्र दें नफ़्स-कुश को दुनिया-दार