मोअज़्ज़िन मर्हबा बर-वक़्त बोला
तिरी आवाज़ मक्के और मदीने
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मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
सज्दे में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
जो पास-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत कहीं यहाँ बिकता
मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
नाज़ुक-कलामियाँ मिरी तोड़ें अदू का दिल
तू भला है तो बुरा हो नहीं सकता ऐ 'ज़ौक़'
शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे