न हुआ पर न हुआ 'मीर' का अंदाज़ नसीब
'ज़ौक़' यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा
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तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
एक आँसू ने डुबोया मुझ को उन की बज़्म में
सज्दे में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता
बज़्म में ज़िक्र मिरा लब पे वो लाए तो सही
नाज़ुक-कलामियाँ मिरी तोड़ें अदू का दिल
महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े