उस का होना भी भरी बज़्म में है वज्ह-ए-सुकूँ
कुछ न बोले भी तो वो मेरा तरफ़-दार लगे
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हम-ज़ाद
कोई तो आ के रुला दे कि हँस रहा हूँ मैं
किताब-ए-हुस्न है तू मिल खुली किताब की तरह
उन से मिलते थे तो सब कहते थे क्यूँ मिलते हो
सँभला नहीं दिल तुझ से बिछड़ कर कई दिन तक
आबला-पाई से वीराना महक जाता है
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म
बड़े ख़ुलूस से दामन पसारता है कोई
क्या क़यामत है कि इक शख़्स का हो भी न सकूँ
किस किस को अब रोना होगा जाने क्या क्या भूल गया
शब-ए-वा'दा कह गई है शब-ए-ग़म दराज़ रखना
छोड़ दूँ शहर तिरा छोड़ दूँ दुनिया तेरी