मूर्ति Poetry (page 19)

तेरी अँखियाँ के तसव्वुर में सदा मस्ताना हूँ

दाऊद औरंगाबादी

किसी की शाम-ए-सादगी सहर का रंग पा गई

दर्शन सिंह

मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

न समझा उम्र गुज़री उस बुत-ए-काफ़र को समझाते

दाग़ देहलवी

दिल का क्या हाल कहूँ सुब्ह को जब उस बुत ने

दाग़ देहलवी

तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं

दाग़ देहलवी

मुमकिन नहीं कि तेरी मोहब्बत की बू न हो

दाग़ देहलवी

मोहब्बत में आराम सब चाहते हैं

दाग़ देहलवी

मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया

दाग़ देहलवी

क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है

दाग़ देहलवी

कुछ लाग कुछ लगाव मोहब्बत में चाहिए

दाग़ देहलवी

कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो

दाग़ देहलवी

जब वो बुत हम-कलाम होता है

दाग़ देहलवी

ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया

दाग़ देहलवी

दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने

दाग़ देहलवी

देख कर जौबन तिरा किस किस को हैरानी हुई

दाग़ देहलवी

बाब-ए-रहमत पे दुआ गिर्या-कुनाँ हो जैसे

दाएम ग़व्वासी

गुनगुनाती हुई आवाज़ कहाँ से लाऊँ

चरख़ चिन्योटी

नई-देहली

चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी

नए झगड़े निराली काविशें ईजाद करते हैं

चकबस्त ब्रिज नारायण

दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे

चकबस्त ब्रिज नारायण

इस क़दर बढ़ गई वहशत तिरे दीवाने की

बूम मेरठी

ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं

बिस्मिल अज़ीमाबादी

चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने

बिस्मिल अज़ीमाबादी

अब मुलाक़ात कहाँ शीशे से पैमाने से

बिस्मिल अज़ीमाबादी

मिल चुका महफ़िल में अब लुत्फ़-ए-शकेबाई मुझे

बिस्मिल इलाहाबादी

दुनिया में वफ़ा-केश बशर ढूँढ रहा हूँ

बिर्ज लाल रअना

फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं

भारतेंदु हरिश्चंद्र

जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है

भारतेंदु हरिश्चंद्र

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