मूर्ति Poetry (page 17)

जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की

ग़ालिब

हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है

ग़ालिब

हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं

ग़ालिब

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

ग़ालिब

है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और

ग़ालिब

घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर

ग़ालिब

ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स

ग़ालिब

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर

ग़ालिब

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव

ग़ालिब

दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ

ग़ालिब

बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला

ग़ालिब

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे

ग़ालिब

जुदाई

फ़िराक़ गोरखपुरी

का'बे में हो या बुत-ख़ाने में होने को तो सर ख़म होता है

फ़िगार उन्नावी

तुम ने क्यूँ दिल में जगह दी है बुतों को 'साबिर'

फ़ज़ल हुसैन साबिर

ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है

फ़ज़ल हुसैन साबिर

है जो ख़ामोश बुत-ए-होश-रुबा मेरे बाद

फ़ज़ल हुसैन साबिर

या तो तारीख़ की अज़्मत से लिपट कर सो जा

फ़े सीन एजाज़

मिरे घर की ईंटें चुरा ले गया वो

फ़े सीन एजाज़

सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है

फ़रियाद आज़र

मुझे खोल ताज़ा हवा में रख

फर्रुख यार

मैं कि अब तेरी ही दीवार का इक साया हूँ

फ़ारिग़ बुख़ारी

वस्ल के लम्हे कहानी हो गए

फ़रहत कानपुरी

ये सारे ख़ूबसूरत जिस्म अभी मर जाने वाले हैं

फ़रहत एहसास

वो महफ़िलें पुरानी अफ़्साना हो रही हैं

फ़रहत एहसास

वहाँ मैं जाऊँ मगर कुछ मिरा भला भी तो हो

फ़रहत एहसास

तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर

फ़रहत एहसास

सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े

फ़रहत एहसास

रात बहुत शराब पी रात बहुत पढ़ी नमाज़

फ़रहत एहसास

मिला है जिस्म कि उस का गुमाँ मिला है मुझे

फ़रहत एहसास

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