दूर Poetry (page 4)

यूँ बोली थी चिड़िया ख़ाली कमरे में

ज़ीशान साहिल

कोई क़ुसूर नहीं मेरी ख़ुश-गुमानी का

ज़ीशान साहिल

दिल धुआँ देने लगे आँख पिघलने लग जाए

ज़ीशान अतहर

हैं काम-काज इतने बदन से लिपट गए

ज़ीशान साजिद

ऐसा है कौन जो मुझे हक़ तक रसाई दे

ज़ेबुन्निसा ज़ेबी

कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार

ज़ेब ग़ौरी

चमक रहा है ख़ेमा-ए-रौशन दूर सितारे सा

ज़ेब ग़ौरी

आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के

ज़ेब ग़ौरी

सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के

ज़ेब ग़ौरी

पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ

ज़ेब ग़ौरी

मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे

ज़ेब ग़ौरी

झुके हुए पेड़ों के तनों पर छाप है चंचल धारे की

ज़ेब ग़ौरी

है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी

ज़ेब ग़ौरी

ग़ार के मुँह से ये चट्टान हटाने के लिए

ज़ेब ग़ौरी

उस शाम को जब रूठ के में घर से चला था

ज़मीर काज़मी

न आँसुओं में कभी था न दिल की आह में है

ज़मीर काज़मी

अमीरों के बुरे अतवार को जो ठीक समझे है

ज़मीर अतरौलवी

मुद्दत हुई न मुझ से मिरा राब्ता हुआ

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

ख़्वाब-नगर के शहज़ादे ने ऐसे भी निरवान लिया

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

ख़ाक सहराओं की पलकों पे सजा ली हम ने

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी

ज़की काकोरवी

लोग कहते रहे क़रीब है वो

ज़की काकोरवी

ऐ दिल तिरी आहों में इतना तो असर आए

ज़की काकोरवी

रात आँसू को तिरी आँख में देखा हम ने

ज़काउद्दीन शायाँ

ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू माने-ए-इल्तिफ़ात क्या

ज़हीर अहमद ताज

हम ने तो शराफ़त में हर चीज़ गँवा दी है

ज़ाहिदुल हक़

तपिश से फिर नग़्मा-ए-जुनूँ की सुरूद-ओ-चंग-ओ-रबाब टूटे

ज़ाहिदा ज़ैदी

तख़्ईल का दर खोले हुए शाम खड़ी है

ज़ाहिदा ज़ैदी

मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने

ज़ाहिदा ज़ैदी

मिज़ाज-ए-शे'र को हर दौर में रहा महबूब

ज़ाहिद कमाल

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