दर Poetry (page 55)

बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए

ग़ालिब

बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम

ग़ालिब

अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें

ग़ालिब

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

ग़ालिब

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

ग़ालिब

याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे

ग़ालिब

वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक

ग़ालिब

वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो

ग़ालिब

उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए

ग़ालिब

उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'

ग़ालिब

सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम

ग़ालिब

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो

ग़ालिब

क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ

ग़ालिब

फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है

ग़ालिब

नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में

ग़ालिब

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

ग़ालिब

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

ग़ालिब

लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और

ग़ालिब

लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का

ग़ालिब

किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो

ग़ालिब

ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है

ग़ालिब

कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए

ग़ालिब

जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'

ग़ालिब

इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं

ग़ालिब

हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है

ग़ालिब

हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है

ग़ालिब

हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर

ग़ालिब

हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी

ग़ालिब

हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़

ग़ालिब

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

ग़ालिब

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