दर Poetry (page 3)

पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

सुनते हैं जो हम दश्त में पानी की कहानी

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

बड़ी मुश्किल कहानी थी मगर अंजाम सादा है

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

अश्क गिरने की सदा आई है

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

नाकामी-ए-सद-हसरत-ए-पारीना से डर जाएँ

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है

ज़ुहूर नज़र

छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं

ज़ुहूर नज़र

रात के पिछले पहर इक सनसनाहट सी हुई

ज़ुबैर शिफ़ाई

फ़स्ल की जल्वागरी देखता हूँ

ज़ुबैर शिफ़ाई

नया जन्म

ज़ुबैर रिज़वी

ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे

ज़ुबैर रिज़वी

सितमगरी भी मिरी कुश्तगाँ भी मेरे थे

ज़ुबैर रिज़वी

शौक़ उर्यां है बहुत जिन के शबिस्तानों में

ज़ुबैर रिज़वी

हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे

ज़ुबैर रिज़वी

बरसों में तुझे देखा तो एहसास हुआ है

ज़ुबैर रिज़वी

अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो

ज़ुबैर रिज़वी

शिकस्ता ख़्वाब मिरे आईने में रक्खे हैं

ज़ुबैर क़ैसर

एक इक कर के बहुत दुख साथ मेरे हो लिए

ज़ुबैर फ़ारूक़

मेरा सारा बदन राख हो भी चुका मैं ने दिल को बचाया है तेरे लिए

ज़ुबैर फ़ारूक़

लोग कहते हैं यहाँ एक हसीं रहता था

ज़ुबैर फ़ारूक़

दिल का ग़म से ग़म का नम से राब्ता बनता गया

ज़ुबैर फ़ारूक़

हर एक लम्हा तिरी याद में बसर करना

ज़ुबैर अमरोहवी

इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन

ज़ुबैर अली ताबिश

वो पास क्या ज़रा सा मुस्कुरा के बैठ गया

ज़ुबैर अली ताबिश

अभी मुझ से किसी को मोहब्बत नहीं हुई

ज़ियाउल हसन

क़ुर्बतों के ये सिलसिले भी हैं

ज़िया शबनमी

तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

तुग़्यानी से डर जाता हूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

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