इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
कुछ ने मेरा सर फोड़ा हैं कुछ पर मैं ने सर फोड़ा है
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पहेली ज़िंदगी की कब तू ऐ नादान समझेगा
तुम्हारे ग़म से तौबा कर रहा हूँ
तुम्हारा सिर्फ़ हवाओं पे शक गया होगा
भरे हुए जाम पर सुराही का सर झुका तो बुरा लगेगा
वैसे तू मेरे मकाँ तक तू चला आता है
वो पास क्या ज़रा सा मुस्कुरा के बैठ गया
रास्ते जो भी चमक-दार नज़र आते हैं
शायद क़ज़ा ने मुझ को ख़ज़ाना बना दिया
दिल फिर उस कूचे में जाने वाला है
एक पहुँचा हुआ मुसाफ़िर है
बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है