शायद क़ज़ा ने मुझ को ख़ज़ाना बना दिया
ऐसा नहीं तो क्यूँ मुझे दफ़ना रहे हैं लोग
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अपना कंगन समझ रहे हो क्या
कोई तितली निशाने पर नहीं है
तुम्हारे ग़म से तौबा कर रहा हूँ
अब तलक उस को ध्यान हो मेरा
एक पहुँचा हुआ मुसाफ़िर है
वो जिस ने आँख अता की है देखने के लिए
दिल फिर उस कूचे में जाने वाला है
बिछड़ कर भी हूँ ज़िंदा रहने वाला
बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है
पहेली ज़िंदगी की कब तू ऐ नादान समझेगा
इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
वैसे तू मेरे मकाँ तक तू चला आता है