दर Poetry (page 54)

रात का हर इक मंज़र रंजिशों से बोझल था

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही

ग़ुलाम मौला क़लक़

उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं

ग़ुलाम मौला क़लक़

उन से कहा कि सिद्क़-ए-मोहब्बत मगर दरोग़

ग़ुलाम मौला क़लक़

तेरे दर पर मक़ाम रखते हैं

ग़ुलाम मौला क़लक़

राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे

ग़ुलाम मौला क़लक़

नक़्श-बर-आब नाम है सैल-ए-फ़ना मक़ाम

ग़ुलाम मौला क़लक़

क्या आ के जहाँ में कर गए हम

ग़ुलाम मौला क़लक़

दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ

ग़ुलाम मौला क़लक़

आप के महरम असरार थे अग़्यार कि हम

ग़ुलाम मौला क़लक़

उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मता-ए-दीद तो क्या जानिए किस से इबारत है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से

ग़ुलाम हुसैन साजिद

आज आईने में जो कुछ भी नज़र आता है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

जल्वा-ए-हुस्न अगर ज़ीनत-ए-काशाना बने

ग़ुबार भट्टी

जाते हैं वहाँ से गर कहीं हम

ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र

पत्थर

ग़ज़नफ़र

ये तमन्ना नहीं कि मर जाएँ

ग़ज़नफ़र

सामान-ए-ऐश सारा हमें यूँ तू दे गया

ग़ज़नफ़र

ज़मीं के साथ फ़लक के सफ़र में हम भी हैं

ग़यास मतीन

न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले

ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी

मुखड़ा वो बुत जिधर करेगा

ग़मगीन देहलवी

तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं

ग़ालिब अयाज़

हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना

ग़ालिब अयाज़

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

ग़ालिब

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार

ग़ालिब

है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल

ग़ालिब

दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया

ग़ालिब

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं

ग़ालिब

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब

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