घर Poetry (page 69)

फिर से वो लौट कर नहीं आया

इब्न-ए-मुफ़्ती

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले

इब्न-ए-इंशा

ये बच्चा किस का बच्चा है

इब्न-ए-इंशा

ये बातें झूटी बातें हैं

इब्न-ए-इंशा

झुलसी सी इक बस्ती में

इब्न-ए-इंशा

इस बस्ती के इक कूचे में

इब्न-ए-इंशा

चाँद के तमन्नाई

इब्न-ए-इंशा

सुनते हैं फिर छुप छुप उन के घर में आते जाते हो

इब्न-ए-इंशा

जाने तू क्या ढूँढ रहा है बस्ती में वीराने में

इब्न-ए-इंशा

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या

इब्न-ए-इंशा

अर्श के तारे तोड़ के लाएँ काविश लोग हज़ार करें

इब्न-ए-इंशा

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले

इब्न-ए-इंशा

शाम छत पर उतर गई होगी

हुसैन माजिद

उलझनें इतनी थीं मंज़र और पस-मंज़र के बीच

हुसैन ताज रिज़वी

फिर तिरा शहर तिरी राहगुज़र हो कि न हो

हुसैन ताज रिज़वी

मैं उस की आँख में वो मेरे दिल की सैर में था

हुसैन ताज रिज़वी

इस हाल में जीते हो तो मर क्यूँ नहीं जाते

हुसैन ताज रिज़वी

ज़मीं का दम निकलता जा रहा है

हुसैन आबिद

ज़मीं का दम निकलता जा रहा है

हुसैन आबिद

वक़्त गर्दिश में ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो था

हुरमतुल इकराम

लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर

हुमैरा रहमान

ज़िक्र सुनती हूँ उजाले का बहुत

हुमैरा राहत

मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'

हुमैरा राहत

बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उस की यादों का

हुमैरा राहत

ये कहना था जो दुनिया कह रही है

हुमैरा राहत

वक़्त ऐसा कोई तुझ पर आए

हुमैरा राहत

तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है

हुमैरा राहत

जिसे मिलें वही तन्हा दिखाई देता है

हीरानंद सोज़

उन के सब झूट मो'तबर ठहरे

हिना हैदर

मंज़िल के ख़्वाब देखते हैं पाँव काट के

हिमायत अली शाएर

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