घर Poetry (page 67)

नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह

इफ़्तिख़ार नसीम

मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा

इफ़्तिख़ार नसीम

जिला-वतन हूँ मिरा घर पुकारता है मुझे

इफ़्तिख़ार नसीम

है जुस्तुजू अगर इस को इधर भी आएगा

इफ़्तिख़ार नसीम

बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा

इफ़्तिख़ार नसीम

अपना सारा बोझ ज़मीं पर फेंक दिया

इफ़्तिख़ार नसीम

रख-रखाव में कोई ख़्वार नहीं होता यार

इफ़्तिख़ार मुग़ल

वो ख़्वाब था बिखर गया ख़याल था मिला नहीं

इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी

बिखर ही जाऊँगा मैं भी हवा उदासी है

इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी

भर आईं आँखें किसी भूली याद से शाम के मंज़र में

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर न गए

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हर इक से पूछते फिरते हैं तेरे ख़ाना-ब-दोश

इफ़्तिख़ार आरिफ़

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ

इफ़्तिख़ार आरिफ़

दर-ओ-दीवार इतने अजनबी क्यूँ लग रहे हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा

इफ़्तिख़ार आरिफ़

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया

इफ़्तिख़ार आरिफ़

इल्तिजा

इफ़्तिख़ार आरिफ़

गुमनाम सिपाही की क़ब्र पर

इफ़्तिख़ार आरिफ़

एलान नामा

इफ़्तिख़ार आरिफ़

एक कहानी बहुत पुरानी

इफ़्तिख़ार आरिफ़

चक-फेरी

इफ़्तिख़ार आरिफ़

बन-बास

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये क़र्ज़-ए-कज-कुलही कब तलक अदा होगा

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये नक़्श हम जो सर-ए-लौह-ए-जाँ बनाते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था

इफ़्तिख़ार आरिफ़

समुंदर इस क़दर शोरीदा-सर क्यूँ लग रहा है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

सब चेहरों पर एक ही रंग और सब आँखों में एक ही ख़्वाब

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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