मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'
उदासी जाने कब से रह रही है
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Habib Jalib
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Gulzar
Jaun Eliya
Anwar Masood
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(763) Peoples Rate This
वो मुझ को आज़माता ही रहा है ज़िंदगी भर
किसी भी राएगानी से बड़ा है
बहुत ताख़ीर से पाया है ख़ुद को
फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
न हम से इश्क़ का मफ़्हूम पूछो
हर एक ख़्वाब की ताबीर थोड़ी होती है
उसे भी ज़िंदगी करनी पड़ेगी 'मीर' जैसी
वो इश्क़ को किस तरह समझ पाएगा जिस ने
आँखों से किसी ख़्वाब को बाहर नहीं देखा
ये कहना था जो दुनिया कह रही है
तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है
तुम्हारे इश्क़ पे दिल को जो मान था न रहा