वो इश्क़ को किस तरह समझ पाएगा जिस ने
सहरा से गले मिलते समुंदर नहीं देखा
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वक़्त की आँख से कुछ ख़्वाब नए माँगता है
न हम से इश्क़ का मफ़्हूम पूछो
मैं आब-ए-इश्क़ में हल हो गई हूँ
वो मुझ को आज़माता ही रहा है ज़िंदगी भर
ये कहना था जो दुनिया कह रही है
गुज़र जाएगी सारी रात इस में
फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
तुम्हारे इश्क़ पे दिल को जो मान था न रहा
कहानी को मुकम्मल जो करे वो बाब उठा लाई
जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए
मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'