न हम से इश्क़ का मफ़्हूम पूछो
ये लफ़्ज़ अपने मआनी से बड़ा है
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जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए
मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'
वक़्त ऐसा कोई तुझ पर आए
किसी भी राएगानी से बड़ा है
जहाँ इक शख़्स भी मिलता नहीं है चाहने से
वो और थे कि जो ना-ख़ुश थे दो जहाँ ले कर
वो इश्क़ को किस तरह समझ पाएगा जिस ने
बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
गुज़र जाएगी सारी रात इस में
तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है