घर Poetry (page 74)

जब तिलिस्म-ए-असर से निकला था

हामिद जीलानी

दिन को न घर से जाइए लगता है डर मुझे

हामिद जीलानी

अपने हिसार-ए-जिस्म से बाहर भी देखते

हामिद जीलानी

मिरी आँखों से हट कर कुछ नहीं है

हमीद गौहर

उस के करम से है न तुम्हारी नज़र से है

हमीद अलमास

फिर किसी याद का दरवाज़ा खुला आहिस्ता

हमीद अलमास

जितने अच्छे लोग हैं वो मुझ से वाबस्ता रहे

हमीद अलमास

ज़बाँ के साथ यहाँ ज़ाइक़ा भी रक्खा है

हमदम कशमीरी

मिलता है हर चराग़ को साया ज़मीन पर

हमदम कशमीरी

हम अपने आप को फिर आज़मा के देखेंगे

हमदम कशमीरी

एक क़तरा न कहीं ख़ूँ का बहा मेरे बअ'द

हमदम कशमीरी

भला तू और घर आए मिरे क्यूँ-कर यक़ीं कर लूँ

हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा

मरीज़-ए-इश्क़ की जुज़-मर्ग दुनिया में दवा क्यूँ हो

हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा

चर्चा हमारा इश्क़ ने क्यूँ जा-ब-जा किया

हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा

घर में जो इक चराग़ था तुम ने उसे बुझा दिया

हकीम नासिर

आप क्या आए कि रुख़्सत सब अंधेरे हो गए

हकीम नासिर

मय-कशी गर्दिश-ए-अय्याम से आगे न बढ़ी

हकीम नासिर

इश्क़ कर के देख ली जो बेबसी देखी न थी

हकीम नासिर

ऐ दोस्त कहीं तुझ पे भी इल्ज़ाम न आए

हकीम नासिर

आँखों ने हाल कह दिया होंट न फिर हिला सके

हकीम नासिर

देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे

हकीम मंज़ूर

अपनी नज़र से टूट कर अपनी नज़र में गुम हुआ

हकीम मंज़ूर

वो जो अब तक लम्स है उस लम्स का पैकर बने

हकीम मंज़ूर

टूट कर बिखरे न सूरज भी है मुझ को डर बहुत

हकीम मंज़ूर

मिरे वजूद की दुनिया में है असर किस का

हकीम मंज़ूर

मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है

हकीम मंज़ूर

ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी

हकीम मंज़ूर

बयाबाँ-ज़ाद कोई क्या कहे ख़ुद बे-मकाँ है

हकीम मंज़ूर

अपनी नज़र से टूट कर अपनी नज़र में गुम हुआ

हकीम मंज़ूर

आगे पीछे उस का अपना साया लहराता रहा

हकीम मंज़ूर

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