देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे
इतना बे-बस भी कहाँ होगा कोई घर में कभी
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अजब सहरा बदन पर आब का इबहाम रक्खा है
मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है
हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया
सफ़र ही कोई रहेगा न फ़ासला कोई
रेज़ा रेज़ा रात भर जो ख़ौफ़ से होता रहा
छोड़ कर बार-ए-सदा वो बे-सदा हो जाएगा
मुंतशिर सायों का है या अक्स-ए-बे-पैकर का है
बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल
टूट कर बिखरे न सूरज भी है मुझ को डर बहुत
तुझ पे खुल जाएँगे ख़ुद अपने भी असरार कई
फूल हो कर फूल को क्या चाहना
अगरचे उस की हर इक बात खुरदुरी है बहुत