हाल Poetry (page 35)
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ग़ालिब
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
ग़ालिब
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
ग़ालिब
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
ग़ालिब
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
ग़ालिब
क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ
ग़ालिब
नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहीं
ग़ालिब
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
ग़ालिब
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ग़ालिब
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए
ग़ालिब
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
ग़ालिब
हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है
ग़ालिब
है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल
ग़ालिब
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
ग़ालिब
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
ग़ालिब
गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है
ग़ालिब
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ग़ालिब
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ग़ालिब
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
ग़ालिब
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
ग़ालिब
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
ग़ालिब
फैमली-प्लैनिंग
फ़ुर्क़त काकोरवी
ज़ालिम है वो ऐसा कि जफ़ा भी नहीं करता
फ़िरदौस गयावी
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
फ़िराक़ गोरखपुरी
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
फ़िराक़ गोरखपुरी
इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला
फ़िराक़ गोरखपुरी
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
अजीब कश्मकश है कैसे हर्फ़-ए-मुद्दआ कहूँ
फ़िगार उन्नावी
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