जफ़ा Poetry (page 2)

ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम

वाजिद अली शाह अख़्तर

उठा लेने से तो दिल के रहा मैं

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

लूटा है मुझे उस की हर अदा ने

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

किसी तरह दिन तो कट रहे हैं फ़रेब-ए-उम्मीद खा रहा हूँ

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

तुझ में तो एक ख़ू-ए-जफ़ा और हो गई

वहीद इलाहाबादी

दीवानों को मंज़िल का पता याद नहीं है

वहीद अख़्तर

लाख नादाँ हैं मगर इतनी सज़ा भी न मिले

वारिस किरमानी

होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम

तिलोकचंद महरूम

ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ

तारिक़ क़मर

कभी न आएँगे जाने वाले

तारिक़ क़मर

मिल भी जाता जो आब आब-ए-बक़ा क्या करते

तनवीर अहमद अल्वी

मेरा आईना मिरी शक्ल दिखाता है मुझे

तालिब चकवाली

लुत्फ़ का रब्त है कोई न जफ़ा का रिश्ता

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

भूले तो जैसे रब्त कोई दरमियाँ न था

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश

ताबाँ अब्दुल हई

शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

ताबाँ अब्दुल हई

मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है

ताबाँ अब्दुल हई

इन ज़ालिमों को जौर सिवा काम ही नहीं

ताबाँ अब्दुल हई

रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

सितम करना करम करना वफ़ा करना जफ़ा करना

सय्यद नज़ीर हसन सख़ा देहलवी

साया-ए-ज़ुल्म सर-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा होता है

सय्यद मुनीर

शिकवे ज़बाँ पे आ सकें इस का सवाल ही न हो

सय्यद हामिद

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