उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
तू अब ज़ालिम वफ़ा कर या जफ़ा कर
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अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
'वहशत' सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न और ही शय है
मेहनत हो मुसीबत हो सितम हो तो मज़ा है
जो तुझ से शोर-ए-तबस्सुम ज़रा कमी होगी
संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ
दिल को हम कब तक बचाए रखते हर आसेब से
आह-ए-शब नाला-ए-सहर ले कर
और इशरत की तमन्ना क्या करें