'वहशत' सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न और ही शय है
दीवान में यारों के तो अशआर बहुत हैं
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नहीं कि इश्क़ नहीं है गुल ओ समन से मुझे
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें
लगाओ न जब दिल तो फिर क्यूँ लगावट
शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया
बे-समझे न जाम-ए-ग़म पिया था मैं ने
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे