और इशरत की तमन्ना क्या करें
सामने तू हो तुझे देखा करें
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ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
छुपा न गोशा-नशीनी से राज़-ए-दिल 'वहशत'
लुत्फ़-ए-निहाँ से जब जब वो मुस्कुरा दिए हैं
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
सच कहा है कि ब-उम्मीद है दुनिया क़ाइम
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया