इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे
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सीने में मिरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी है
गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
मेहनत हो मुसीबत हो सितम हो तो मज़ा है
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम
किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
नहीं कि इश्क़ नहीं है गुल ओ समन से मुझे