मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
कहीं से तुम बयाँ करते कहीं से हम बयाँ करते
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था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
जो तुझ से शोर-ए-तबस्सुम ज़रा कमी होगी
और इशरत की तमन्ना क्या करें
हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता