हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
महफ़िल सुख़न की गूँज उठी वाह वाह से
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तल्ख़ी-कश-ए-नौमीदी-ए-दीदार बहुत हैं
बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
मेहनत हो मुसीबत हो सितम हो तो मज़ा है
यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
आज़ाद उस से हैं कि बयाबाँ ही क्यूँ न हो
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का
ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी