गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
डर है उन्हें निगाह लड़ेगी निगाह से
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क्यूँ ग़म्ज़ा-ए-जाँ-सिताँ को ख़ंजर न कहें
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे
मुरव्वत का पास और वफ़ा का लिहाज़
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़