ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले
Jaun Eliya
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दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया
किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्क़ी 'वहशत'
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए
मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
दोनों ने किया है मुझ को रुस्वा
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है
ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा