पर Poetry (page 7)

अपने ही फ़न की आग में जलते रहे 'शमीम'

फ़ारूक़ शमीम

ग़ज़लों में अब वो रंग न रानाई रह गई

फ़ारूक़ शमीम

कोई भी शख़्स न हंगामा-ए-मकाँ में मिला

फ़ारूक़ शफ़क़

मैं कि अब तेरी ही दीवार का इक साया हूँ

फ़ारिग़ बुख़ारी

सहर होने तक

फ़रीद इशरती

छिपकिली

फ़रीद इशरती

ज़ौक़-ए-परवाज़ में साबित हुआ सय्यारों से

फ़रीद इशरती

ज़िंदाँ की एक सुब्ह

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अक़्लीमा

फ़हमीदा रियाज़

उस ने पूछा भी मगर हाल छुपाए गए हम

फ़हीम शनास काज़मी

शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है

एहतिशाम अख्तर

मुझ में आबाद सराबों का इलाक़ा करने

दिनेश नायडू

रिश्वत-ख़ोर सरकारी मुलाज़मीन

दिलावर फ़िगार

ख़ुद अपनी आग में सारे चराग़ जलते हैं

दिलावर अली आज़र

ये मो'जिज़ा भी दिखाती है सब्ज़ आग मुझे

दानियाल तरीर

आग में जलते हुए देखा गया है

दानियाल तरीर

ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम

दाग़ देहलवी

बी.टी-नामा

कर्नल मोहम्मद ख़ान

सभी सम्तों को ठुकरा कर उड़ी जाए

चंद्र प्रकाश शाद

ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं

भारतेंदु हरिश्चंद्र

अक़्ल दौड़ाई बहुत कुछ तो गुमाँ तक पहुँचे

बेताब अज़ीमाबादी

हब्स के दिनों में भी घर से कब निकलते हैं

बशीर सैफ़ी

वो कभी शाख़-ए-गुल-ए-तर की तरह लगता है

बशीर फ़ारूक़

उस की आँखों को ग़ौर से देखो

बशीर बद्र

कोई फूल सा हाथ काँधे पे था

बशीर बद्र

उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं

बशीर बद्र

मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे

बशीर बद्र

मैं तुम को भूल भी सकता हूँ इस जहाँ के लिए

बशीर बद्र

हमारे पास तो आओ बड़ा अंधेरा है

बशीर बद्र

यूँ सितमगर नहीं होते जानाँ

बाक़ी अहमदपुरी

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