चलो चलें Poetry (page 70)

ये हुक्म है तिरी राहों में दूसरा न मिले

अदा जाफ़री

यही नहीं कि ज़ख़्म-ए-जाँ को चारा-जू मिला नहीं

अदा जाफ़री

वैसे ही ख़याल आ गया है

अदा जाफ़री

वही ना-सबूरी-ए-आरज़ू वही नक़्श-ए-पा वही जादा है

अदा जाफ़री

तौफ़ीक़ से कब कोई सरोकार चले है

अदा जाफ़री

कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा

अदा जाफ़री

ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था

अदा जाफ़री

जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था

अदा जाफ़री

हिस नहीं तड़प नहीं बाब-ए-अता भी क्यूँ खुले

अदा जाफ़री

हर इक दरीचा किरन किरन है जहाँ से गुज़रे जिधर गए हैं

अदा जाफ़री

हाल खुलता नहीं जबीनों से

अदा जाफ़री

गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ

अदा जाफ़री

गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आई

अदा जाफ़री

आलम ही और था जो शनासाइयों में था

अदा जाफ़री

आख़िरी टीस आज़माने को

अदा जाफ़री

नक़्श-ए-यक़ीं तिरा वजूद-ए-वहम बुझा गुमाँ बुझा

अबुल हसनात हक़्क़ी

ख़ामोश इस तरह से न जल कर धुआँ उठा

अबू ज़ाहिद सय्यद यहया हुसैनी क़द्र

ये बंदगी का सदा अब समाँ रहे न रहे

अबु मोहम्मद वासिल

हसरत-ए-दीद रही दीद का ख़्वाहाँ हो कर

अबु मोहम्मद वासिल

बला-ए-जाँ थी जो बज़्म-ए-तमाशा छोड़ दी मैं ने

अबु मोहम्मद सहर

ज़िंदगी ख़ाक-बसर शोला-ब-जाँ आज भी है

अबु मोहम्मद सहर

बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं

अबु मोहम्मद सहर

क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ

आबरू शाह मुबारक

जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त

आबरू शाह मुबारक

इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं

आबरू शाह मुबारक

ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा

आबरू शाह मुबारक

या सजन तर्क-ए-मुलाक़ात करो

आबरू शाह मुबारक

उस ज़ुल्फ़-ए-जाँ कूँ सनम की बला कहो

आबरू शाह मुबारक

तुम्हारी जब सीं आई हैं सजन दुखने को लाल अँखियाँ

आबरू शाह मुबारक

पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता

आबरू शाह मुबारक

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