क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ
क्या तू नें समझा है आशिक़ इस क़दर है मोम का
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जो कि बिस्मिल्लाह कर खाए तआम
क़ौल 'आबरू' का था कि न जाऊँगा उस गली
ज़िंदगानी सराब की सी तरह
देख तू बे-रहम आशिक़ नीं तुझे छोड़ा नहीं
इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना
तुम नज़र क्यूँ चुराए जाते हो
इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं
तुम्हारे दिल में क्या ना-मेहरबानी आ गई ज़ालिम
जलते थे तुम कूँ देख के ग़ैर अंजुमन में हम
दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती
उस वक़्त जान प्यारे हम पावते हैं जी सा
अगर दिल इश्क़ सीं ग़ाफ़िल रहा है